वक्फ संशोधन कानून पर अंतरिम रोक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में बहस पूरी हो गई है। इस दौरान केंद्र सरकार ने कानून पर अंतरिम रोक लगाने का जोरदार विरोध किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना अंतरिम आदेश को सुरक्षित रख लिया है। बहस के दौरान केंद्र सरकार ने वक्फ कानून का पुरजोर समर्थन किया।
नई दिल्ली। वक्फ संशोधन कानून पर अंतरिम रोक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने बहस पूरी करके अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। तीन दिन चली बहस में याचिकाकर्ताओं ने कानून को मुसलमानों के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ और भेदभावपूर्ण बताते हुए अंतरिम रोक लगाने की मांग की जबकि केंद्र सरकार ने कानून को सही बताते हुए अंतरिम रोक का जोरदार विरोध किया।
केंद्र सरकार की ओर से पेश सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कानून में वक्फ करने वाले के लिए पांच वर्ष का प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने की अनिवार्यता के प्रविधान को सही ठहराते हुए कहा कि शरिया कानून में भी अगर कोई मुस्लिम पर्सनल ला का लाभ लेना चाहता है तो उसे भी मुस्लिम होने का घोषणापत्र देना होता है, इस कानून में भी यही है बस पांच साल के प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने की बात कही गई है। अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र में वक्फ की मनाही के प्रविधान को सही ठहराते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा जनजातीय लोगों के हितों को ध्यान में रखकर किया गया है।
तीन दिन कोर्ट ने सुनीं दललें
केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने गुरुवार को कानून का बचाव करते हुए कहा कि पुराने कानून में भी था कि वक्फ करने वाला मुसलमान होगा लेकिन 2013 के कानून में संशोधन करके मुसलमान शब्द हटा कर कोई भी व्यक्ति कर दिया गया था अब इस नये संशोधित कानून 2025 में उसे बदला गया है। मेहता ने कहा कि वक्फ तो मुसलमान ही करेगा। और अगर कोई हिन्दू वक्फ को दान करना चाहता है तो अभी भी कर सकता है उस पर कानून में कोई रोक नहीं है। अगर हिन्दू किसी मस्जिद को बनवाना चाहता है तो ऐसा कर सकता है, एक ट्रस्ट के जरिए ऐसा किया जा सकता है।
उन्होंने कानून में वक्फ करने वाले के लिए पांच वर्ष के लिए प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने की अनिवार्यता के प्रविधान को सही ठहराते हुए दलील दी कि शरिया कानून में भी अगर कोई मुस्लिम पर्सनल ला का लाभ लेना चाहता है तो उसे भी मुस्लिम होने का घोषणापत्र देना होता है। शरिया कानून मुसलमानों के शादी, तलाक, उत्तराधिकार आदि के बारे में है। मेहता ने कहा कि इस कानून में (वक्फ संशोधन कानून 2025) भी यही है बस पांच साल के प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने की बात कही गई है।
हालांकि मेहता की इस दलील का कानून का विरोध कर रहे याचिकाकर्ता के वकील अभीषेक मनु सिंघवी ने विरोध किया उन्होंने कहा कि इस कानून की तुलना शरिया कानून से नहीं की जा सकती। वैसे भी शरिया कानून में हमारे पास उसे मानने न मानने का विकल्प होता है। सिंघवी ने कहा कि इसके अलावा ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें पांच साल के प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने की शर्त हो। इतना ही नहीं मुसलमानों के लिए इस कानून में ऐसी शर्त रखी गई है जबकि और धर्मों के कानूनों में अन्य धर्मावलंबियों के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है इसलिए ये प्रविधान संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करता है।
केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल ने अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र में वक्फ नहीं किये जा सकने के प्रविधान को सही ठहराते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से एसटी शिड्यूल एरिया को संरक्षित किया गया है। उन्हें वैध कारणों से संरक्षित किया गया है। जनजातीय लोगों की संस्कृति अलग होती है उनकी जमीन को संरक्षित रखने के लिए ये प्रविधान है। लेकिन तभी सीजेआइ गवई ने कहा कि कानून के मुताबिक तो जनजातीय व्यक्ति की जमीन उसी के पास रहती है। मेहता ने कहा कि हां अगर कोई धोखाधड़ी करके जनजातीय व्यक्ति से जमीन बिकवा कर अपने नाम करा लेता है तो कोर्ट उस जमीन को वापस जनजातीय व्यक्ति को दिला सकता है लेकिन वक्फ के मामले में ऐसा नहीं है।
वक्फ का सिद्धांत है कि एक बार वक्फ हमेशा के लिए वक्फ होता है। तो ऐसे में अगर संपत्ति वक्फ कर दी जाती है तो उसे वापस नहीं लिया जा सकता। मेहता ने कहा कि जनजातीय लोग इस्लाम को उस तरह नहीं मानते जैसे इस्लाम को समझा जाता है उनकी संस्कृति अलग है। इस दलील पर पीठ के दूसरे न्यायाधीश एजी मसीह ने कहा कि इस्लाम तो इस्लाम है धर्म वही रहता है सांस्कृतिक प्रथाएं अलग हो सकती हैं। मेहता ने कहा कि उनकी दलील सिर्फ इतनी है कि इस आधार पर कानून पर रोक नहीं लगाई जा सकती। हालांकि याचिकाकर्तओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हुजैफा अहमदी ने अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र में वक्फ की मनाही के प्रविधान का विरोध करते हुए कहा कि यह नियम भेदभाव करता है, इससे उस क्षेत्र में रहने वाले जनजातीय मुसलमानों का वक्फ करने का अधिकार समाप्त होता है।
इन तीन मुद्दों पर अंतरिम आदेश की मांग
सुनवाई के दौरान जब प्रतिउत्तर देते समय वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल वक्फ बाई यूजर को पंजीकृत कराने की अनिवार्यता के नियम के विरोध में दलीलें दे रहे थे तभी सीजेआइ बीआर गवई ने उनसे कहा कि 1923 के कानून से वक्फ पंजीकृत कराना अनिवार्य था। फिर 1954 के कानून में भी अनिवार्य था उसके बाद 1976 की रिपोर्ट आयी जिसमें वक्फ पंजीकृत कराना क्यों जरूरी है यह बताया गया। 1995 के कानून में भी पंजीकरण जरूरी था। सौ साल से पंजीकरण जरूरी है। कोर्ट का मतलब था कि वक्फ पंजीकृत कराने का नियम कोई नया नहीं है।
सिब्बल ने इसके जवाब में कहा कि 1923 के कानून में मुतवल्ली को बताना था बाद में सर्वे की बात हुई और सर्वे भी नहीं हुआ अगर आंकड़ा देखा जाए तो बहुत कम वक्फ पंजीकृत हैं।
सिब्बल ने वक्फ को इस्लाम का अभिन्न हिस्सा न मानने की सरकार की दलील का विरोध किया और कहा कि वक्फ इस्लाम का जरूरी हिस्सा है।
मेहता के अलावा कानून के समर्थन में भाजपा शासित कुछ राज्यों की ओर से भी पक्ष रखा गया। वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि पूजा स्थल कानून 1991 में फ्रीज हो गया जबकि वक्फ बाई यूजर (उपयोग के आधार पर वक्फ) सैकड़ो वर्षों से अधिक समय से जारी रह सकता है, जबकि ये प्रतिकूल कब्जे (एडवर्स पजेशन) से प्राप्त किया गया, इसे कैसे उचित माना जा सकता है।
तुषार मेहता ने भी वक्फ कानून में लिमिटेशन लागू किये जाने के विरोध का जवाब देते हुए कहा कि जब सारे कानूनों में लिमिटेशन लागू होता है तो वक्फ पर क्यों नहीं लागू होना चाहिए। रंजीत कुमार ने कहा कि मुस्लिम कानून कहता है कि कोई व्यक्ति किसी संपत्ति को तभी वक्फ कर सकता है जब वह संपत्ति उसकी अपनी हो। लेकिन पुराने कानून में वक्फ बोर्ड को किसी भी संपत्ति को वक्फ घोषित करने का अधिकार दिया गया था और पीड़ित व्यक्ति को इसे ठीक कराने वक्फ ट्रिब्युनल के पास जाना पड़ता था और अगर आपत्ति नहीं की जाती तो बोर्ड का निर्णय अंतिम हो जाता था। इसे इस कानून में ठीक किया गया है।
तमिलनाडु के एक पूरे गांव को वक्फ संपत्ति घोषित किये जाने के खिलाफ भी एक याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंची। उसने कहा कि पूरे गांव को वक्फ घोषित किया गया है वहां पांच हजार साल पुराना चोला राजाओं द्वारा बनवाया गया था उसे भी वक्फ घोषित किया गया। कोर्ट इस पहलू पर भी विचार करे। कोर्ट ने मामले में विचार करने का भरोसा दिलाया।
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